गुरुवार, 3 मार्च 2011

kahani mithilesh priyadarshy

यह आम रास्ता नहीं है




एक जूते चमकाने वाले आदमी का ध्यान बरबस आपके पैरों की ओर चला जाता है, नाई की नजरें आपके बाल-दाढी को टोहती रहती हैं और सुनार को आपके शरीर की सूनी जगहें तुरंत सूझ जाती हैं. पेशे का मसला ठहरा. लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं है, क्योंकि मैं किसी भी नजरिये से पेशेवर नहीं हूं. मगर मैं बेरिहाइश हूं, इसलिए कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा है. आस-पास का सारा माहौल गुम हो गया है. आंखें बस लोगों के घरों पर जमी है. एक अदद बसेरे की तलाश में.

खोल कर कहूं तो हाल यह है कि इन दिनों मैं कई बार की तरह एक बार फिर भीषण रूप से बेघरपने का शिकार हूं. सडक पर आया नहीं हूं, मगर अगले दस दिनों में यदि कोई कमरा नहीं मिला तो शर्तिया आ जाउंगा. शहर में कदम रखने के बाद, पिछले दो महीने से जो छत नसीब थी, उसपर काफी दबाव है. किसी चेतावनी से कतई कम नहीं, तीन तारीखें मिल गयी हैं और जाया भी हो गयी है. सिर पर लटकते कटार की तरह चौथी सामने है. अब यहां से कुछ भी अनहोनी या खतरनाक हो सकता है. शहर नया है, लोग नये हैं, पुलिस नयी है, गुंडे नये हैं. गडबडी हुई तो बहुत गडबडी हो जाएगी. इसलिए किसी भी हालत में एक कमरा चाहिए बस.

बस इसलिए, सडक चलते बडी हसरत से लोगों के मकानों के आगे ‘टु लेट’ लिखे तख्ते खोजता फिरता रहता हूं. चलता हूं आगे, पर देखता हूं बायें-दायें. इस काम में मेरी तल्लीनता इस कदर गहराती जा रही है कि अंधाधूंधी में टकराने, गालियां सुनने, ठोकर खाने या कभी-कभी गिर कर चोटिल होने के मौकों की संभावनाएं खासी बढ आयी हैं. सोचिए कि पागलों पर भौंकने वाले लगभग पागल हो चुके कुत्ते वीरानी दोपहरों में मुझे यूं भटकते, लोगों के घरों में बाहर से झांकते देख भौंकते-भौंकते हलाकान हो हलक की प्यास बुझाने चुपचाप दूसरी गलियों की ओर चल देते हैं.

खडे-खडे बारूद को जला देने वाली गर्मी, अनवरत थकाऊ भटकाव और तय तारीख को कमरा खाली कर देने की धमकी ने मुझे बदहवास सा कर दिया है. हर सुबह कहीं काम पर जाने की तरह कमरे की तलाश में निकलता हूं. रोज-रोज नए प्रयोग करता हूं. अच्छी तरह से साफ और इस्त्री किए हुए कडक कपडे पहनता हूं. बाल-दाढी और जूतों की स्थिति ठीक करता हूं. गंभीर और मामुली रूप से ही सही पर संभ्रात दिखने की हरसंभव कोशिश करता हूं. लाख परेशान और टूटे हुए होने के बावजूद चेहरे की मुद्रा, बातों और चाल को सलीके से साध कर अपने व्यक्तितत्व को वजनी और खुशनुमा बनाए रखता हूं. इन तैयारियों के साथ घूमते-घूमते शहर खत्म हो जाता है पर कमरा हाथ नहीं आता. दिनभर में तकरीबन चार-पांच दर्जन घरों में झांकता हूं. हर घर में संभावनाओं की रौशनी तलाशता हूं. घर के बाहर किसी को न पाने पर फाटक खटखटाता हूं, बिजली की घंटियां बजाता हूं. अपनी असहायता छिपाता हुआ घर के मालिक को देखकर सभ्यता से मुसकुराता हूं, नमस्ते कहता हूं और उनसे बात करने लायक आत्मविश्वास जुटाता हूं. और अंतत: बात न बनने पर थके हुए निराश शब्दों के साथ औपचारिकता में कि माफ कीजिएगा मैंने आपका बेशकीमती वक्त जाया किया, घर मालिक को शुक्रिया के साथ एक बार फिर से अभिवादन करता हूं और अगले घर की ओर बढ जाता हूं. इस जानलेवा गर्मी में यह सब अत्यंत हताशाजनक है.

छोटे और बिल्कुल छोटे घर, एक से ज्यादा तल्ले वाले घर, कांच की खिडकियों और रंगीन खूबसूरत पर्दे और गाडियों वाले घर, झक्क और नामालुम से रंग से पुते चमकदार घर, नारियल या अशोक के पेडों या फूलों से घिरे हरे-भरे घर, कुत्ते से सावधान की हिदायत देते अहंकारी घर, आज़ादी के आसपास वाले बहुत पुराने और धीमे खंडहर में तब्दील होते नक्काशीदार घर, शहर ऐसे और कई किस्मों से पटा हुआ है. मेरी निगाहों से कुछ भी अछूता नहीं रहा है. इकलौते बेटे की तरह दुलार कर रखे गये किसी बडे और कई कमरों वाले सुंदर घर को देखकर लगता है इस घर में एक कमरा तो मुझे दिया ही जा सकता है. आखिर इतने सारे कमरे हैं और रहने वाले तीन, चार या पांच या ज्यादा से ज्यादा छ:. मगर नहीं. लोग साफ इंकार कर देते हैं. वे ठाठपसंद हैं.

प्रारंभिक तलाश में मैं घरों के आगे ‘टु लेट’ या ‘कमरा किराए पर देना है’ जैसे बोर्ड ढूंढा करता था. कहीं ऐसा लिखा हुआ पाकर झूम जाता था. पर इस मामले में लोगों की लापरवाहियों ने मेरा दिल काफी दुखाया. कई घरों में जहां ऐसी तख्तियां लटककर बेघरों को आमंत्रित कर रही थी, मैं खुश हो वहां गया, पर ज्यादातर मालिकों ने मुझसे भी ज्यादा खुश होते हुए कहा कि बोर्ड तो बहुत पुराना है. किराएदार तो कब से रह रहे हैं. ऐसे संवाद सुनकर खुशनसीब किराएदार बाहर निकल आते थे और इतराहट भरी विजयी मुस्कान छोडते हुए मेरी ओर सहानुभूति से ताकते थे. मन में रंज उठता. उनसे बडी ईर्ष्या होती. इसलिए अब मैं तख्तियों की परवाह नहीं करता हूं. हर घर पर दस्तक देता हूं. हालांकि यह बहुत पीडादायी है, क्योंकि इससे थकान और निराशाओं की मात्रा बढती जाती है. पर इस तरीके में मुझे एक उम्मीद भी दिखती है. उटक्कर किसी घर मालिक से पूछूं कि कमरा चाहिए और वह अचानक इस प्रस्ताव पर द्वंद या भ्रम में पडकर सोचने लग जाए तो? तो शायद संभव है कि वह मुझे पत्नी से पूछकर अगले दिन जवाब देने की बात कहे. और शायद अगले दिन वह तैयार हो जाए. इस तरीके में सटीकता की कमी तो जरूर है पर संभावनाएं बेहिसाब हैं. अलबत्ता मेरे अनुभव बडे बदमजगी वाले रहे. दिमागी तौर पर अनगढ और बदशऊर मालिकों से बातचीत करना बहुत मुश्किल होता है. वे सामने वाले को महज खानाबदोश समझते हैं. बेघरों के लिये उनके पास हिकारत का स्थायी भाव रहता है. उनके बडे घरों को देखकर यदि आप उनसे यह पूछने गये कि कमरा खली है क्या, तो वे आपको एक्सरे वाली नजरों से घूरेंगे और लगभग झिडकते हुए उल्टा सवाल करेंगे कि बाहर कहीं ऐसा लिखा हुआ है क्या? आप लाजवाब. ऐसे घरों में घुसने के लिए जो साहस आप बडी कठिनाई से जुटाते हैं, उनके ऐसे जवाब से सब एक झटके में बिला जाता है. और चमडी के नीचे दबा पसीना भल-भल निकलने लगता है. सही में बहुत बुरा लगता है. सामने वाले का मुंह तोड देने या उसका घर नाबूद कर देने का मन करता है. घर उसका है. मर्जी उसकी है. ठीक है, पर प्रेम से दो बोल बोलने में क्या जाता है.

वैसे एक अनजान आदमी का बेसमय दस्तक देने को शहरों में लोग अपनी निजता में खलल समझते हैं. भिखारियों, याचकों या सेल्समैनों पर शहर वालों का दिमाग दिन-रात गरम ही रहता है. इसलिये मैं यहां उन सबसे माफी मांग ले रहा हूं, जिनकी अनछुई सुबहें, आरामतलब दुपहरें और शानदार शामें मेरी अपनी परेशानी की वजह से खाक हुई हैं.

‘ दुनिया जालिम है, नजर बौर है. सोचो कुछ, होता कुछ और है. ’

कालेज की जिंदगी में मेरा एक अभिन्न दोस्त जब मुसीबत में होता तो कोफ्त में गालियां बकने की बजाय इसी वाक्य को दुहराता-तीहराता रहता.

एक दोपहर जब गलियां लगभग वीरान पडी थी, और मैं पूर्ववत भटक रहा था, एक घर के बाहर कूलर में पानी भरती हुई लडकी दिखायी दी. मैं उस घर के सामने खडा हो उस लडकी से पूछने लगा कि इधर आस-पास किसी खाली कमरे की जानकारी उसे है क्या? उसने नहीं के लिये सिर हिला दिया और अपना काम करने लगी. मैं खडा रहा और पाईप से डाले जा रहे जीवनदायनी पानी को निहारता रहा. मैंने अपने होठों पर जीभ फिरायी, वे पपडीनुमा थीं. “ एक ग्लास पानी मिल जाता तो प्यास मिट जाती”. फाटक के बहुत दूर से ही मैंने झिझकते हुए कह दिया. वह पाईप समेटकर झटपट अंदर चली गयी. मैं पानी के इंतजार में था. उस दरवाजे से जिधर से लडकी गयी थी, लडकी नहीं, उसकी जगह एक आदमी अपना पाजामा ठीक करते हुए निकला. उसने अपनी आंखों में रौब लाते हुए मुझसे कहा, “ क्या काम है?” मैं संभल गया और एक पल के लिए सोच में पड गया कि इस आदमी से पानी के लिए कहूं या कमरे के लिए. मैंने कमरे की बात कह दी. वह मुझे अविश्वास और सख्त नाराजगी के साथ घूरा और बिना कुछ कहे वापस अंदर चला गया. फिर लौटकर नहीं आया.

दुनिया को जालिम बताने वाला मेरा दोस्त ठीक था.

और एक दिन और ऐसा ही.

यह पुलिस लाईन के पीछे का इलाका था, जहां मैं तीन दिनों से गलियां छान रहा था. कमरे से निकलने के बाद मैं पुलिस मुख्यालय परिसर के सामने के उपाहार गृह में पोहे खाता और चाय पीता. फिर तनिक स्फूर्ति पा अपने काम के लिये चल पडता. इतनी सुबह उपाहार गृह में चंद आम जनों के अलावे बाकी पुलिस वाले ही होते. ज्यादा भीड-भाड नहीं होती. पोहा और चाय गरम और लज़िज़ होते. पुलिस और सेना के लोग जहां दाना-पानी लेते हैं, वहां चीजें गुणवत्ता के मामले में अपेक्षाकृत ठीक होती हैं. चौथे दिन उपाहार गृह से निकल ही रहा था कि मेरे सामने एक आदमी अचानक आकर खडा हो गया और पूछने लगा कि मनोहर टाकिज कहां है. अब उसको ठीक-ठीक कैसे बताता कि कहां है. शहर आते ही एक फिल्म उस टाकिज में देखा तो था, पर गली-मोहल्ले का नाम मालुम नहीं था, सो बगल वाली पान गुमटी की ओर इशारा करके कह दिया, वहां पता चल जाएगा. उसके मुंह में पान था. उसने थूका पिच्च. मैं अपनी धून में आगे बढ गया. कि कौंधा, बाबा रे, इस अजनबी शहर में यह चेहरा जान-पहचान का लगता है. पिच्च और लाल मुंह.. हौ बेटा इसको तो उसी दिन देखा था, मनोहर टाकिज में घुसने से पहले. मूंगफली के ठेले के पास खडा था. ऐसे ही थूके जा रहा था. उमडते-घुमडते मेरे याद्दाश्त ने तुरंत साथ दिया था. और उस समय का पूरा प्रसंग भी मुझे याद आ गया था. पान की पीक से इधर-उधर गंदगी फैलाते देख तब मेरे मन में एक बात ये आयी थी कि ऐसे ही लोगों से निजात पाने के लिए कई लोग दीवारों या थूके या पेशाब किए जाने की जगहों पर देवी-देवताओं की डिजाईन वाले टाईल्स सेट करवा लेते हैं कि ले अब थूक के या मूत के दिखा. और देखिए कि इसी बात के सहारे ये आदमी याद आ गया था. उस आदमी ने मुझसे जानबूझकर उसी सिनेमा हाल के बारे में पूछा था, जहां उसने मुझे देख रखा था. और मुझे पक्का भरोसा है, उसके सवाल का संतोषजनक जवाब नहीं दे पाने पर मैं उसकी नजरों में पर्याप्त रूप से संदिग्ध हो गया होऊंगा. क्योंकि उस दिन के बाद एक-दो और रोज मैंने इस आदमी को अपने आस-पास पाया. वह बदगुमानी में मेरा पीछा करता रहा, जैसे इस बात का मुझे कोई होश ही न हो.

थोडा तजुर्बा और होशियारी हो न, तो ये नमूने आसानी से पहचान में आ जाते हैं. ये अपने आप को ज्यादा काबिल का तोहफ़ा समझते हैं, पर अत्यधिक लाचार और बेदम होते हैं. सौ चालाकी बरतने की कोशिशों के बावजूद भी चिन्ह लिये जाते हैं और तब इनपर बहुत ज्यादा दया आती है. ये दुनिया को अपने चश्में से देखने के चक्कर में विवेक छोडकर ड्यूटी बजाते हैं. किसी को कुछ भी मान लेते हैं और पीछे लग जाते हैं. मुझे ही लीजिए, मैं इस नयी जगह में कोई एक ठौर ढूंढने में लगा हूं, बहुत परेशान हूं, और न जाने क्या समझ कर ये हाथ धोकर मेरे पीछे पड गए. अब इन्हें कौन समझाए कि मैं केवल और केवल इस नये शहर में एक बेरोजगार और बेरिहाइश आदमी से ज्यादा कुछ भी नहीं हो पाया हूं. और जहां तक मेरे चेहरे पर फैली थकी, हांफती लाचारी और बदहवासी, जो शायद गुप्तचरी नज़रों में मुझे संदेहास्पद बनाए दे रही है, का सवाल है, भागदौड के इस हालात में यह बहुत स्वाभाविक है.

मेरे द्वारा किए गये वायदे की तारीख जैसे-जैसे नजदिक आती जाती है, अपार थके होने के बाद भी रात की नींद उथली महसूस होती है. करवट बदलते हुए लगता है, अभी बिस्तर छोड कमरे की तलाश में निकल पडूं. अविकसित नींद के पारभाषी सपनों में कमरे की जद्दोजहद ही तारी रहती है. उपेक्षा, नफरत, निराशा, संदेह, बहाना और दुत्कार ड्रामाई अंदाज में भयानक कहानियों में तब्दील हो जाते हैं. ये मुझे डराते हैं, बहकाते हैं. मैं नींद में ही बडबडाता हूं और चीख-चीख कर हाथ हिलाते हुए किसी नेता की तरह आंय-बांय-सांय बोलने लगता हूं. मैं कहता हूं, अरे लोगों, मेरा दु:ख बढते तारीखों के साथ बढता जा रहा है. मैं असीम परेशान हूं. आपलोगों से न्याय की फरियाद करता हूं. न्याय आपके यहां नहीं है तो फिर कहां है. मैं सिनेमा घरों, बस स्थानक और रेलवे स्टेशन के बाहर खडा हो लोगों का इंतजार करता हूं कि वो निकलें तो कमरे की बाबत पूछूं. मैं लाल बत्ती पर वाहनों से ठंसी सडक पर दौड-दौडकर लोगों से कमरे की बाबत पूछ्ता हूं. पहले से ही थके-झल्लाये लोग गुस्से में मुझे लात मारने पर ऊतारू हो जाते हैं. कमरे की तलाश शायद मेरी जान की दुश्मन साबित होगी. घबराकर मैं नींद और सपने में ही वसीयत तैयार करने लग जाता हूं. भारी तनाव और दवाब के बीच राह चलते यदि इन दिनों सडक दुर्घटना में मेरी मौत हो गई, जोकि मेरी घबराहट और बदहवासी की वजह से बहुत हद तक संभव भी है, क्योंकि पिछले पांच दिनों में मैं तीन दफे रपटे जाने से बाल-बाल बच चुका हूं, तो मैं अग्रिम घोषणा किए दे रहा हूं और इसे पूर्णतया वैध माना जाए कि चालक को किन्हीं भी आपत्तिजनक स्थितियों में पाए जाने के बाद भी दुर्घटना के लिए सम्पूर्ण जिम्मेदारी अंतत: मेरी ही होगी. और यदि मैं घायल होकर रह गया और किसी प्रकार के बयान देने की स्थिति में नहीं रहा, जैसे कि कोमा में या आंख, कान, हाथ जाने की स्थिति में, तो मेरे इसी बयान को तब के लिए सुरक्षित मान लिया जाए. एक जरूरी बात यह भी कि पुलिस या उस सीआईडी वाले को या औरों को मेरा यह कुबूलनामा संदिग्ध प्रतीत हो सकता है, इसलिए मैं यह साफ कर देना चाहता हूं कि मुझे नुकसान पहुंचने पर मेरे कई दुश्मनों के सक्रिय होने के बावजूद इसमें उन नक्कारों की कोई भूमिका नहीं है. ये बातें मैं बिना किसी अस्त्र-शस्त्र या अन्य किसी तरह के दवाब में स्वीकार कर रहा हूं. विवाद की किसी परिस्थिति में न्याय क्षेत्र नागपुर होगा.

दिन में भागदैड, बेचैनी और कुंठा और रात में हौलनाक और ताज़्ज़ुबखेज ख्वाब. हद है.

पांच बेटियों का एक खिलौना

असल में मुझे ज्यादा दिक्कत इसलिये भी हो रही है कि मैं जिस समय में हूं, वह पहले से ज्यादा बिगडैल और जटिल हो गया है और इसमें विश्वास का भयानक टोटा पड गया है. नहीं तो किराए के कमरे में जिंदगी गुजारने का लंबा अनुभव है. जन्मा भी किराए के कमरे में ही हूं. मेरे परिवार को कुछ नहीं तो चालिस साल से ऊपर हो गये हैं बिना घर के जीते हुए. पर मेरी इतनी जिल्लत किसी ने नहीं झेली है.

बेहद कच्ची उम्र में ही मुझे किराएदार हो जाना था. मैट्रिक पास करने के बाद इंटरमीडिएट की पढाई के लिए मैं पास के ही शहर में भेज दिया गया था. कमरे के नाम पर एक छोटी जगह मिली थी. एक बिस्तर, एक टेबल-कुर्सी लगाने भर की जगह. डेढ सौ रूपये महीना. पहले उसमें एक हलवाई रहता था. जिसे बहुत पीटा गया था और घसिट कर निकाल दिया गया था. उसने मकान मालिक की बडी बेटी को छेडा था. मकान मालिक एक बडी मिठाई की दूकान का भी मालिक था, जहां हलवाई को काम करने के लिये रखा गया था. हलवाई ने बहुत गलत किया था.

सेठ की पांच बेटियां थीं. सोलह साल से शुरू होकर दो-दो साल के अंतराल से छब्बीस बरस तक की. शुरू के एक-दो महीने मैं डरा-लजाया रहा. कमरे में ही घुसा रहता. किसी से कोई बोलचाल नहीं करता. कालेज जाता, बाज़ार जाता, बाकी समय कमरे में ही बंद रहता. बिजली चली जाती, कमरा गर्मी और उमस से भर जाता तब भी कमरे से बाहर नहीं निकलता. सोचता, कमरे के भीतर ही पेशाब-पैखाने की जगह होनी चाहिए थी. बार-बार पेशाब करने बाहर जाने से बचने के लिये कोई छेद या छोटी नाली होती तो अच्छा होता. मैंने नहाने के लिए भी ऐसे समय को चुना था, जब सब सो रहे होते.

फिर एक दिन पांचों अचानक चिल्लाने लगी. कुएं के पास काला बुढा करैत था. घर में केवल मालकिन थी. वह भी डर के मारे फलां को बुलाओ. चिलां को बुलाओ कर रही थी. मैं सकुचाते हुए निकला और खिलवाडी करते हुए सांप का माथा चूर दिया. उसे डंडे पर झूलाते हुए मैं शर्मा-शर्मा कर मुस्कुराने लगा. डर से बाहर निकलकर पांचों लडकियां भी हंसने लगी थीं. उनकी आंखों में मेरे साहस के लिए अल्हड तारिफ थी. मुझे अच्छा लगा. दूसरे दिन चौथे नंबर की लडकी ने मुझे अमरूद खाने को दिया, कच्चा ही सही पर उसमें नमक लगा हुआ था. मुझे फिर अच्छा लगा. शाम को मैं बाज़ार जा रहा था तो उसने मुझे पैसे दिए और अंडे लेते आने के लिए कहा. मैं खुश हो गया. वह मुझसे अगले रोज भी अंडे मंगवायी. वह अपने बालों और चेहरे में अंडे की जर्दी मलती थी. उसकी देखा-देखी बडी बेटी ने भी कहा. फिर सबने मुझसे यही फरमाईश की. वे पांचों एक दूसरे से होड करती थी. मुझे लगा, मुझे सब मानती हैं.

एक दिन सबसे छोटी, जो मेरी हमउम्र थी, कहने लगी, मधुमक्खी के काटने से उसका हाथ सूज गया है और वह नहाने के लिए पानी नहीं भर पा रही है. वह यह कहने पहली बार मेरे कमरे के दरवाजे तक आयी थी. मैंने देखा उसका हाथ सचमुच सूजा हुआ था. मैं दयालु हो उठा और उत्साह में कुएं पर रखे ड्रम को आधा भर दिया. फिर तो ये सिलसिला ही बन गया. बाकी चारों भी अलग-अलग बहानों से मुझसे पानी भरवाने लगी. वे दुलार करती, दूकान के बचे बासी समोसे, कचौरियां खिलातीं. और फिर अपने काम निकालती. कोई कहता चाकलेट ला दो, कोई कहता पैड ला दो, किसी के लिए चाट बनवाकर लाना पडता. बडी और तीसरे नंबर वाली उपन्यास पढती थी. वे मुझसे भाडे पर मोटा वाला उपन्यास मंगवाती. उन्हें पहुंचाने मुझे ही जाना पडता. उन्हीं के चक्कर में मुझे भी इसकी लत लग गयी थी. चौथे नंबर वाली का एक प्रेमी था. एक दोपहर मैंने नीचे अपने शौचालय के पास उन्हें चुमाचाटी करते देख लिया था. अगले रोज उसने और उसके प्रेमी ने मुझे सौ रूपये दिये थे कि किसी को कुछ नहीं बताऊं. इसी चक्कर में चार-पांच मर्तबा मैंने उनकी चीट्ठियां भी इधर-उधर की थी. मैं शहर में नया था. मेरी आंखें नहीं खुली थी. मैं सबसे डरता था. इसलिये किसी को मना नहीं कर पाया. हालांकि दिल से केवल छोटी वाली का काम करने में मेरा मन लगता था.

इसी बीच एक दिन पिताजी मिलने आ गये. लडकियों को फर्क नहीं पडा. वे किसी तरह का कोई परहेज नहीं बरतीं. पिताजी के सामने पानी भरने के लिये आवाज लगायीं, लौटाने के लिये उपन्यास दिया, फरमाईश की लिस्ट थमायी. ये सब देखकर पिताजी का माथा ठनका. वे रूक गये. लडकियां बाज नहीं आयीं. चौथे वाली मुझे जबर्दस्ती चीट्ठी दे आने के लिये कहने लगी. जब मैं नहीं माना, तो वह मेरी जेब में चीट्ठी डालकर भाग गयी. पिताजी यही सब तमाशे देखने के लिये रूके थे. उन्होंने मुझे रंगे हाथ पकड लिया, और फिर उन्हीं लडकियों के सामने जो मारा, जो मारा कि नाक-मुंह से खून निकाल दिया.

कुछ समय बाद उसी शहर में मुझे अपने मौसेरे भाई के साथ रख दिया गया. फिर से एक नया कमरा. नया माहौल. उस घर में एक दिन कार्यक्रम हुआ. काफी लोग आये. एक लडकी जो तीन दिन पहले से आयी हुई थी, कार्यक्रम वाले दिन, रात में छत पर उसने मुझे गुलाब का लाल फूल दिया. कहा, मालुम है न, लाल गुलाब क्यों दिया जाता है? मैंने उस समय हां में सिर हिला दिया मगर अगले रोज कपडे और किताब बैग में भरकर पहली गाडी पकडकर घर आ गया. पांच बेटियों वाले घर में बतौर किराएदार रहते हुए मैंने सिखा था कि मकान मालिक के यहां की लडकियों-औरतों से पर्याप्त दूरी बरतनी होती है, नहीं तो अंजाम बहुत बुरा होता है.

और तब से अब तक दर्जनों बार कमरे बदलते हुए कुछ न कुछ सिखता ही रहा. कई अनगढों से पाला पडा. पर सबसे बचकर आडे-तिरछे निकलता गया. पैसे में देर-कुबेर, भाडा बढाने, पानी की किल्लत, बिजली के लिये हुज्जत, अतिथियों से परेशानी, साफ-सफाई, बेमतलब की टोका-टोकी जैसे कई मसले हैं, जिसपर रार होना अटल होता है. कुछ गलती इधर से रहती है, कुछ उधर से. मकान मालिकों की दिक्कत ये है कि वे अपनी रोटी खाना भी चाहते हैं, बचाना भी. समय से पैसे मिलते रहें और घर का दोहन भी न हो. पता भी न चलने पाए कि इसी छत के नीचे कुछ अजनबी भी रहते हैं. ऐसा कहां होता है. हालांकि यह जरूर है कि भाडे के कमरे में रहना थोडा शऊर मांगता है. पर चापलूसी की हद तक तो नहीं न.

हर शहर के मिजाज में फर्क होता है. वहां के लोगों की तासीर में फर्क होता है. इस नए शहर में, जहां मैं कमरे के लिये दर-दर भटक रहा हूं, कई अजीबोगरीब मालिक मिले. इनसे बात करते हुए हर पल लगता रहा कि मेरी रहने की समस्या अब बस दूर हो जाने वाली है. पर ये सब के सब बडे बुझौव्वल साबित हुए. इन्होंने एक दिन दौडाया, दो दिन दौडाया मगर हासिल ठेंगा नहीं हुआ.

शहर में पैर रखने के बाद से और अभी तक जहां हूं, वहां का मालिक मेरे लिये सबसे बडा बुझौव्वल बना हुआ है.



एक काला गैंडा जो दिनभर झूलता है झूला

वह काली, तगडी चमडी वाला गैंडानुमा आदमी है. उसकी आंखें वनैली और खूंख्वार हैं. आवाज में पत्थरों की सख्ती और मेढकों का टर्रापन है. गोश्त का एक जानदार पुतला. मेरा मकान मालिक, जिसने मुझे चेतावनी भरी मोहलत बख्शी है.

बजरंगी राय, रिटायर्ड एस.आई. किसी दूसरे आदमी की नहीं, मकान मालिक की ही बात कर रहा हूं. इस आदमी के घर में मैं पिछले तीन महीने से हूं. दूसरे महीने के ग्यारहवें रोज इस आदमी ने मुझे टोका था, कमरा खाली कर दो, मेरे परिवार आने वाले हैं. मैं हडबडाकर पूछा था, कब. दो दिन में. दो दिन में? पहले मुझे कहीं और कमरा देखना पडेगा. ढूंढ लो एक हफ्ते के अंदर. उसने ये बातें आसमान में देखते हुए कही थी. मैं अवाक उसका चेहरा जो देख रहा था. बस उसी रोज़ से मेरा चैन छिन गया. कहां मैं रोजगार खोजने में लगा था, अब अपनी ऊर्जा कमरे के पीछे लगानी थी.

जब मैं शहर आया था और ठौर ढूंढ रहा था, पहले दिन ही एक घंटे की कसरत में यह मकान दिख गया था, जिसके दरवाजे पर चाक से लिखा था, रूम भाडे पर उपलब्ध है. यही बजरंगी राय था उस रोज. घर कहां है? रायगढ. क्या करते हो? जाब देख रहा हूं. फैमिली है न? मेरा जवाब सुनने की बजाय वह फोन सुनने चला गया था. लौटकर फिर नहीं पूछा. महीने की पहली तारीख को पैसा हाथ में देना होगा. हां-हां.

दस दिन बाद.

कमरा छोडने के लिए कहा था, क्यों नहीं किया?

पिछले तीन दिनों से इस अजगर से मुठभेड की हर संभवना को टालता रहा था. आज वो खुद मेरे सामने था. मैंने अपने को पिछले पैरों पे पाया. हल्की घिघियाहट निकली, बहुत दौडा पर कमरा कहीं मिला नहीं. पर कुछ जगह बात हुई है, मिल जाएगा. बारह-चौदह दिनों में कुछ जगहों पर कमरे खाली होने वाले हैं.

देखो, जल्दी देखो. कमरा खाली करो जल्दी. मुझे ऊपर काम लगवाना है.

काम लगवाना है, पर पहले तो परिवार आने वाला था. झूठा, बदमाश. पुलिस विभाग ऐसे ही झूठे-बदमाशों से मिलकर बनता है. मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा कि अचानक ऐसा क्या हो गया जो उसने कमरा खाली कर देने की बात कही और वो भी इतनी जल्दी. पैसे महीने की पहली तारीख को क्या, दो महीने का एकमुश्त दे दिया. किसी तरह का हल्ला, किच-किच नहीं. बोलता कम हूं. कोई अंधाधूंध गेस्टिंग भी नहीं है. शहर नया है, दोस्त नहीं है, दुश्मन नहीं है. बिजली का मीटर अलग है, शौचालय अलग है. दीवारों पर खूंटियों के लिए हथौडे नहीं चलाया. फिर. फिर क्या हुआ. मेरी तकसीर क्या है?

सुबह एक बुढिया बिना नागा छाछ देने आती है. मैं उसे अदरक की चाय पिलाता हूं और पांच मिनट ही सही, उससे जरूर बतियाता हूं. वह कह रही थी, इस घर में रहने वाले हरेक किराएदार को मैंने छाछ दिया है. उससे छाछ लेने की शुरूआत इसी बात पर हुई थी. मैं क्यों इस अच्छे सिलसिले को तोडूं. मैंने अपनी परेशानी बतायी तो कहने लगी, बाकी किराएदार तो खुद ही छोड के चले जाते हैं. कोई चार महीने में, कोई दस महीने में, पर साल भर से ज्याद कोई टिकता नहीं है. तीन साल से यही चल रहा है. ये पहली बार है कि दरोगाजी किसी को खुद ही निकाल रहे हैं. क्या हुआ, कोई बात हो गयी है?

यही तो मालुम नहीं है कि क्या बात हुई है. लेकिन बाकी लोग क्यों खुद छोड देते हैं?

किसी से चर्चा नहीं नहीं करना. बहुत गंदा आदमी है ये. उसका कमरा और इधर किराएदार का सोने वाला कमरा, दोनों कमरों के बीच जो किवाड है, उस की झिर्री से वह किराएदार की एक-एक गतिविधि देखता रहता है. ये बात इस कमरे में रहने वाली दो औरतों ने मुझसे कही. ऐसी बात पता चलने पर कौन टिकेगा? दरोगाजी की औरत और बच्चे उसकी सारी गंदी करतूतें जानते हैं, पर कुछ बोलते नहीं, क्योंकि बोलने पर वह उन्हें सरिये से पिटता है. पुलिस में था, इसलिए बाहर वाला कोई उलझना नहीं चाहता. कहीं चर्चा मत करना यह सब. लगता है तुम अकेले रहते हो, इसलिये तुमको निकाल रहा है.

मैं भक्क रह गया था.

दो हफ्ते बाद.

कब तक बहाने बनाते रहोगे? खाली कर रहे हो की नहीं? वह मुझसे सीधे रूबरू था, मेरे ही कमरे में. मुझे पुलिसिया धमकी की बू आयी. मैं थोडा सहम गया. मैं अपनी मजबूरी गाना चाहता था, लेकिन उसके तेवर देख कहा, मैं कुछ सामान ले जाकर नए कमरे में रख चुका हूं. बयाना भी दे दिया है. पर पहले से जो आदमी उसमें रह रहा है, उसकी भाभी को बच्चा होने वाला है, सो वे लोग गांव से चार-पांच दिनों के लिए यहां आ गये हैं, बच्चा होने के बाद चले जाएंगे. दस दिन में वो कमरा खाली हो जाएगा. हडबडी में बोला गया एक प्रभावी झूठ.

दस नहीं, बारह दिन, पर फिर बारह दिन तो बारह दिन. उसके बाद कोई सुनवाई नहीं होगी. आगे समझना तुम.

हौ बेटा, ये तो चेतावनी मार गया.

अब तक मैं समझ गया था कि वह गंभीरता से ऐसा चाहता है. नए-नए वायदों और आश्वासनों से उसे तसल्ली नहीं होने वाली है. जिंदगी के इन पलों में पहली बार महसूस हुआ कि मेरे भीतर भी एक खासा बेगैरत जीव घर किए था. नहीं तो मजाल है कि आज तक कोई ऊंगली रखा हो कि भाई साहब आप मेरे इतने के लेनदार हैं या आपने मेरे साथ धोखाधडी कर दिया. यहां यह पतित गैंडा मेरा लगातार अपमान कर रहा था और मैं लाचारगी में उसे झेले जा रहा था. आखिर गुस्से में जाता तो कहां जाता. उस उज्जड सनकी से बकझक करने में डर भी लगता था. कहीं सामान न फेकना चालू कर दे. दो हाथ जमा ही दे तो. कौन सटेगा?

मेरे कमरे से थोडा हटकर ही उसका झूला लगा था. वह काला गैंडा दिनभर झूला झूलता रहता था. मुझे कमरे से आता-जाता देखता, तो मेरी ओर ही अपने थोबडे को फिक्स कर देता. अपनी चेतावनी की याद दिलाने के लिए आंखें गडाकर आंखों से ही तगादा मारने लगता. ऐसा करते हुए लगता, एकदम किसी फिल्मी गुंडे की नकल मार रहा है. जालिम ने जीना मुहाल कर रखा था. शहर में काला गैंडा एक मात्र जालिम नहीं था. कई और थे, पर उनका अलग हिसाब था. यदि भूलवश किसी तरह से मुझे इनके घर में जगह मिल भी जाती तो जो हश्र काले गैंडे के घर वाला ही होता.

दिमाग से चिपक कर रह जाने वाले कुछ ऐसे ही घर और उसके मालिक, जहां आशा और अवसाद दोनों मिले.



रानी कुटी

शहर के किस हिस्से में यह जगह थी, मुझे मालुम नहीं. एक अनजान गली से गुजरते हुए ‘टु लेट’ की तख्ती पर नजर गयी थी और मैं यह उम्मीद करने लगा था कि शायद यहां बात बन जाए. चारदीवारी से लगने वाले गेट पर नक्काशीदार अक्षरों में लिखा था ‘रानी कुटी’. फिर मालिक का नाम और उसके नीचे उसका पेशा. घर का मालिक एक शिक्षक था. मंझोले बच्चों को पढाता था. मैंने दस्तक दिया तो एक बुजुर्ग महिला निकली. उसने मुझपर गौर जमाते हुए दस्तक देने का कारण पूछा और बिना कुछ सुने कह गयी, घर में कोई नहीं है, मैं शाम को आऊं.

शाम को शिक्षक मिल गये. वे कूलर की नम हवा में तौलिया लपेटे चाय सुडक रहे थे. उन्होंने घर कहां है और क्या करता हूं पूछा. उन्होंने चाय के लिये नहीं पूछा. आराम से अपनी चाय खत्म की और मौसम पर बात करने लगे. मौसम पर बोल लेने के बाद अचानक कमरा दिखाने के लिये उठे और कहा पीछे आ जाओ. कमरा हवादार था और किराया आसान.

मैं अंदर से खुश था और मास्टर के चेहरे पर नजरें गडाए हुए था कि कोई साकारात्मक संकेत पा सकूं. वे पिछले किराएदारों की कारस्तानियां सुना रहे थे. इसी बहाने वे एक तरह से ताकिद कर रहे थे कि मुझे क्या-क्या करना चाहिए और क्या-क्या नहीं. मसलन, वे बता रहे थे कि इसके पहले वाले लोग बहुत तेज आवाज में टीवी चलाते थे.

“ मेरे पास टीवी नहीं है”. मैंने खुश होकर आश्वस्त किया.

वे रात को कभी ग्यारह बजे आते, कभी बारह बजा देते.

“मैं तो सर, खा-पीकर नौ बजे सो जाने वाला आदमी हूं.”

वे हमेशा नाईट शो ही जाते.

“हिंदी फिल्में देखना मुझे समय की बर्बादी लगती है. मैं केवल नाटक देखता हूं और इस शहर में नाटक होता नहीं है.”

उन लोगों के पास बहुत आदमी आते थे. कमरा हमेशा भरा रहता था. कोई न कोई हमेशा रहता था.

“ मैं बहुत शांत और एकांतपसंद आदमी हूं. भीडभाड से मुझे बहुत दिक्कत होती है. और ऐसे भी इस नए शहर में मेरा है ही कौन? रहने लगूंगा तो आपलोग अपने लगने लगेंगे.”

अच्छा एक और बात थी, वे शराब बहुत पीते थे. बहुत ज्यादा. तुम पीते हो क्या?

यह आखिरी सवाल था मास्टर का. वह मुझसे जैसे-जैसे आश्वस्त होता जा रहा था, थोडा खुलता जा रहा था और साथ में मुझे भी खोले जा रहा था. मैं यहीं गच्चा खा गया. और फिर सब कुछ खत्म हो गया.

“अब झूठ क्या बोलूं आपको. आपसे इतनी बातचीत हो गयी है, कुछ छिपाना ठीक नहीं लगता. मैं पीता हूं. पर किसी पियक्कड की तरह नहीं. कभी-कभार किसी मौके पर. सोचिए कि पिछली बार नवंबर में मैं अपने ममेरे भाई की शादी में थोडा ड्रिंक लिया था. मतलब नौ महीने पहले. अब अगर आप इसको भी पीने में जोडते हैं, तो झूठ नहीं कहूंगा कि मैं नहीं पीता हूं.”

मास्टर अजीब भाव-भंगिमा में हौले-हौले हंस रहा था. थोडा ठहरकर कहने लगा,“ नहीं, मैं तो ऐसे ही पूछ रहा था. ऐसे ही. उतना तो हमलोग भी पीते हैं. और इतना कौन नहीं पीता. आदमी के खाने–पीने पर कोई रोक है क्या?”

“ और इसमें देखने वाली बात तो ये है सर कि कौन कैसे पीता है और पीकर क्या करता है. कोई पीकर गाली-गलौज और हंगामा करता है तो कोई पीने के बाद कविता लिखता है. अब मुझे ही लिजिये. मैं अगर कभी ले भी लिया तो सीधे बिस्तर पकडकर सो जाता हूं. भला इससे किसी को क्या समस्या हो सकती है?”

मेरी बात खत्म होते ही सामने पर्दे की ओट में एक आकृति अचानक डोलने लगी. वह शायद उसकी पत्नी थी. वह अंदर से कुछ इशारा कर रही थी. वह कुछ कहना चाह रही थी. मैंने देखा, मास्टर के दिखावे वाली हंसी पर बेचैनी के भाव साफ आने-जाने लगे थे. वह मेरी ओर एक झूठी मुस्कुराहट उछाल कर कहा, एक मिनट. और अंदर चला गया. एक अनहोनी की आशंका से मैं परेशान हो गया.

मास्टर न के बराबर समय में लौट आया था. थोडा झिझकते हुए उसने कहा,“ असल में हमने कमरा पढने वाली लडकियों को देने के लिये रखा है. लैडिज रहती है तो ठीक रहता है. नहीं तो दिक्कत होती है. एक बेटी भी है हमारी.”

मुझे लगा मैं फट पडूंगा, यही कहना था तो उतनी देर से क्यों बैठा कर रखा. झूठमूठ का मगजमारी हो गया. मगर मैंने कहा, एक बार आंटी से बात करनी है. वह पर्दे के पीछे ही थी, झट से निकल आयी. उसकी गोद में दो साल के आसपास की एक बच्ची थी.

“वाह, यही प्यारी बेटी है? इसके साथ तो मैं घंटों खेल सकता हूं. मेरे घर में मेरी भतिजी इतनी ही छोटी है. मुझे बच्चों को खिलाने का शौक भी है और अनुभव भी.” उसकी पत्नी ने मेरी बात पर सीधे मुंह बिचका दिया,“ नहीं, हमलोग लडकियों को ही रखेंगे.”

बात खत्म हो गयी थी, मैं ठगा सा खडा रह गया था. मुझे उन वाहियात पति-पत्नी पर इतना क्षोभ हुआ कि लगा उनका मुंह नोच लूं. बहानेबाज औरत. सबसे ज्यादा मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था. क्या जरुरत थी ज्यादा बकबक करने की. होशियार गिनाने की. अरे उसने पूछा, शराब पीते हो, नहीं पीता हूं, एक लाईन में बात खत्म. अब पिछले साल पीया था, पिकनिक पर पीया था, पीकर सो जाता हूं, आखिर इन बातों का मतलब क्या था वहां?

सच का मोल=कुछ नहीं.

अगले दो-तीन दिन, जब-जब मुझे उस कमरे की बात याद आयी, मैं गहरे अफसोस और दु:ख से भर गया. मैं अपनी बेवकूफी पर खुद को माफ नहीं कर पा रहा था.



भारती निवास

दिन भर में गली का पांच चक्कर हो चुका था. मेहदी और करी पत्ते वाली झाडियों से घिरे भारती निवास में ताला लगा था. पडोसियों से जानकारी मिली कि घर के लोग शहर से बाहर नहीं गये हैं. शायद शाम तक लौट आएं.

शाम हो आयी थी. मैं पांचवी मर्तबा देखने आया, ताला अब तक नहीं खुला था. मैं चिंतित हो उठा. फाटक से लटक रहा कार्डबोर्ड देख दिल बैठा जा रहा था. सुबह कार्डबोर्ड पर जैसे ही नज़र गयी थी, ‘टू लेट फार स्टूडेंट’, देह में रोमांच हो आया था. घर बंद देख मैं घूम-फिरकर आजू-बाजू ही डोलता रहा. लोग आएं तो बात करुं. पर यहां तो शाम हो आयी थी, घर अब भी बंद था. मुसीबत यह नहीं थी कि लोग कब आएंगे. मेरा ध्यान तो कार्डबोर्ड पर अटका था. मेरे जैसा ही कोई बेघर घूमते-घामते यदि इसे देख लिया तो मुश्किल हो सकती है. शायद घर का ताला खुलते ही मुझसे पहले वो पहुंच जाए. निगरानी की इसी चक्कर में दिन बर्बाद हो गया था. मैं कमरा देखने कहीं और नहीं जा पाया था.

और बिजली यकबयक गुल हो गयी. अचानक अंधेरे को पाकर मेरे दिमाग में एक शैतानी सूझी. मैंने डरते-डरते कार्डबोर्ड उतार लिया और उसे मोडकर थैले में डाल तेजी से कमरे की ओर चल पडा. मैं खुश और आश्वस्त था कि अब मैदान में केवल मैं रहूंगा.

सुबह मोर्निंग वाक के बहाने एक दफा उधर से लौट आया था, लोग अब तक नहीं आये थे. दोपहर में भी यही हाल रहा. पर शाम में देखा तो घर में रौशनी थी. मैं अंदर चला गया.

“जी आपके यहां किराए से कमरा मिलेगा क्या?”

“नहीं, कौन भेजा है यहां?”

“नहीं किसी ने नहीं, मैं खुद ढूंढता हुआ आया हूं.”

“हमने कहीं इश्तहार दिया है क्या, जो देखकर चले आए.”

वह सख्त चेहरे और झबरे मूंछों वाला एक रौबिला आदमी था. उसके अप्रत्याशित और बेहद आक्रामक रवैये से मैं सकपका गया. एक मन किया, डटकर कुछ जबाव दूं. फिर कार्डबोर्ड वाली बात मुंह पर आते-आते रह गयी कि कल मैंने गेट पर लिखा हुआ देखा था, ‘कमरा खाली है’. और कहीं वो बोल दिया, दिखाओ कहां लिखा हुआ है, तो? सनकबाज जान पडता है. मैंने माफी कहा और वापस चला आया. दिमाग भन्ना रहा था कि आखिर माजरा क्या है. खुद ही लिखकर टांगते हैं, कमरा खाली है और जाओ तो दुत्कारते हैं.

अगली सुबह मुझे लगा, एक बार और जाकर देखना चाहिए. यदि वही सनकी पागल आदमी दिखा तब तो कोई बात नहीं करनी है, लेकिन अगर कोई दूसरा दिख गया तो एक बार कोशिश की जा सकती है. शायद बात बन जाए.

मैं उस घर के अगल-बगल एक बार फिर से मंडराने लगा था. असल में ऐसा करते हुए मैं खुद को भीतर जाने के लिये तैयार कर रहा था. एक महिला को पौधों में पानी डालते देखकर मैं फाटक के करीब चला गया. “आंटी कमरा खाली है क्या?” वह पहले तो ठिठकी, फिर एक अस्पष्ट सा नाम पुकारी. अंदर से जो लडकी आयी, उससे महिला ने कहा,“ बेटा इनको कमरा दिखा दो.”

“और प्रमोद भ्या? मम्मी देखो वो फिर से चिल्लाने लगेंगे”.

“उसको जाने दो. तुम पहले इनको कमरा दिखाओ.”

प्रमोद चिल्लाएगा? कौन प्रमोद. कहीं कल वाला वही आदमी तो नहीं है, जिससे मेरी मुठभेड हुई थी? मैं मन ही मन आशंकाओं में पडने लगा था. डरते-डरते आधे-अधूरे मन से कमरा देखा. एक कमरा. किचेन, लैट्रीन-बाथरूम. सब ओर टाइल्स जडा हुआ. रिहाइश भरपूर पाश था. किराया भी ज्यादा होगा. अभी सीढियां उतरा ही था कि फाटक से अंदर घुसते हुए उस आदमी की नजर मुझ पर पड गयी. वह मुझे देखते ही ताव में आ गया. समझ गया कि मैं ऊपर कमरा देखने गया था.

“कल तुम्हें इज्जत से मेरी बात समझ में नहीं आयी जो आज बेइज्जत होने चले आये. घर को सराय समझ रखे हो. अब एक मिनट में निकल लो यहां से?”

“तुम सुबह-सुबह हल्ला मत करो. मछली बाज़ार नहीं है ये. इसमें और लोग भी रहते हैं. इस आदमी को हमलोग बुलाए हैं कमरा दिखाने के लिये.” एक बुजुर्ग आदमी अंदर के कमरे से निकल आये थे. मामला गरम हो रहा था. मैं डरकर गेट की ओर खडा हो गया था.

“मैं कह चुका हूं कि अब यहां कोई भाडेदार नहीं रहेगा. और ज्यादा तमाशा लगाने की जरुरत नहीं है.”

“तुम क्यों बोल रहे हो? दो दिन में चले जाओगे. रहना तो हमें अकेले पडता है. इसी बहाने दवा-दारू का खर्च निकल आता है. फिर दिक्कत क्या है तुमको?” उसकी मां कह रही थी.

“मैं कुछ नहीं जानता. अब यहां भाडेदार नहीं रहेगा बस. ओए, तू खडा-खडा क्या सुन रहा है बे. जबान की भाषा नहीं समझता क्या, दूसरे तरीके से समझाऊं?” वह मेरी ओर झपट पडा जैसे. वह बैल की तरह था. मैं गेट से बाहर हो गया.

आस-पडोस के लोग हो-हल्ला सुन इधर ही आंख-कान गडाए हुए थे. मुझे घर से निकलते देख बाहर खडे एक-दो लोगों ने पूछा, क्या हुआ. मैंने घटना सुनायी तो वे कहने लगे, “ये तो इनका पुराना धंधा है. बुढा चाहता है, किराएदार रहे, कुछ पैसे आ जाते हैं. बेटा बाहर नौकरी करता है, इनकी सुध लेता नहीं है. और साल में कभी आता भी है तो किराएदार देखकर भडक जाता है.”

“क्यों?”

“बदमाश टाईप का है. जैसा खुद है, दूसरों को भी समझता है. एक जवान बहन है, उस पर पहरा डाल कर रखता है. उसको लगता है किराएदार रहेगा तो कुछ उल्टा-पल्टा जरूर होगा. चार महीने से एक बैंक क्लर्क रह रहा था, बहुत भला लडका था, लेकिन जब ये घर आया और पूरे परिवार को उससे घुला-मिला देखा तो खूब गाली-गलौज करने लगा. और देर रात उसके कमरे में घुसकर उसको जबर्दस्त मारा. थाना-पुलिस सब हुआ. लेकिन ये सुधरता कहां है. कुछ किया क्या तुम्हारे साथ?

“नहीं, आंय-बांय बोल रहा था. झपटने जैसा किया था केवल.”

मैं अपने अपमान से बहुत दुखी था. सारा हाल जानने के बाद मुझे अब वो लडकी याद आ रही थी. उसने कितनी इज्जत से कमरे के बारे में सबकुछ बताया था. सच में दु:खी दिखती थी.

मैं चलने को हुआ, फिर मुडकर उनसे पूछा, “और इधर कहीं कमरा मिलेगा क्या.”

“वैसे कमरे तो नहीं हैं, पर एक सलाह है. अब इधर अगल-बगल कमरा लेने के फिराक में मत पडो. दुबारा उसके घर जाकर तुम उसकी उसकी नज़र में चढ गये हो. यदि फिर देख लिया, तो सही में समझेगा कोई बात है. असल में वो एक खतरनाक आदमी है. शहर के गुंडों के साथ उठना-बैठना है उसका. बेकार में टेंशन लेना है.”

मुझे वो मासूम लडकी फिर याद आ गयी. गुंडों की बात सुनकर मुझे ताव आ गया, “ गुंडाराज है क्या कि कोई किसी पर चढ जएगा? आप कमरा बताईये, खाली मिलेगा तब क्यों नहीं रहूंगा. देखूंगा कि कौन क्या कर लेता है मेरा.” मैं चल दिया और गुस्से में मुझे रास्ते भर फिर वही लडकी याद आती रही.

डर समझें, गुस्सा या फिर हताशा पर मैंने फिर उस मोहल्ले की ओर कभी रुख नहीं किया.



गुरू पितृ कृपा

कमरा ऊपर था. वहां के लिये सीढियां जाती थी. बिल्कुल पतली, एक सामान्य आदमी के समा सकने लायक. और खतरनाक तरीके से खडी भी. इतनी असुविधाजनक सीढियां बनाने के पीछे मालिक और कारीगर का शायद यही तर्क रहा होगा कि किरायेदारों के लिये है, चलेगा.

मैं घर की मालकिन के पीछे था, संभलकर सीढियां चढता हुआ. दरवाजे के आसपास मकडियों के ढेर सारे अदृश्य जाले थे. इनके बारे में मालकिन को पता था, पर मैं फंस गया. चेहरे से जाले बुरी तरह उलझ गये. कमरा काफी समय से बंद मालुम होता था.

मालकिन ने एक-एक कर चारों खिडकियां खोल दी. अब शाम की बहुत सारी धूप और हवा कमरे में थी. एक लंबा सा हाँल. चटाईयां बिछाकर तकरीबन दस आदमियों के आराम से रूकने भर की जगह. अकेले के लिये इतना बडा कमरा. आशंका हुई, किराया भी भरपुर होगा.

“ कमरा देख लिजिये, अभी वो हैं नहीं. बात करने के लिये सुबह आना पडेगा.”

एकबारगी तो सबकुछ ठीक लगा. पर रात में ख्याल आया, पानी और शौचालय के बारे में पूछना भूल गया था. खैर अब सुबह में.

घर का मालिक बहुत कम बोलने वाला आदमी लगता था. उसने मुझसे नाम-ठिकाना कुछ नहीं पूछा. छत पर खडा सुबह देखता रहा, इंतजार में कि मैं कुछ बोलूंगा.

“किराया क्या देना होगा मुझे?”

“अठारह सौ रुपये”.

“ और पानी-बिजली?”

“दोनों हमारी तरफ है”.

“और लैट्रीन-बाथरूम?”

“ नहाने-धोने के लिये कोने में जो थोडी घेरी हुई जगह है, उसको उपयोग में लाया जा सकता है. नंबर वन की जगह इधर है. इधर कमरे के पीछे, छत से. नीचे मोहल्ले का कूडा जमा होता है, इसलिये कोई दिक्कत नहीं है. पानी गिराने की भी झंझट नहीं है. बस लैट्रीन के लिये नीचे जाना होगा. मैं दिखा देता हूं.”

“क्या आप रात को भी लैट्रीन जाते हैं?”

“कह नहीं सकता, क्यों?”

“और सुबह छ: बजे से पहले जाने की आदत नहीं है न?”

“ आदत तो नहीं है, पर हमेशा यही स्थिति रहे, कह नहीं सकता, मगर क्यों?”

“ नहीं आपातकाल की बात ठीक है, जैसे पेट खराब हो जाने पर. लेकिन सामान्य दिनों में लैट्रीन की टाईमिंग रात में होने से समस्या होगी. हमलोग रात दस बजे के बाद दरवाजा बंद कर लेते हैं. और लैट्रीन जाने के लिये रास्ता हमारे घर के भीतर से होकर जाता है.”

“ यह बडा पेचिदा मामला है. ऐसी बातों के लिये आश्वस्त करना मेरे लिये कठिन होगा. आप शौचालय ऊपर क्यों नहीं बनाते?”

“जल्दी ही काम लगाना है. पैसे की स्थिति अभी ढीली चल रही है. इसके पहले जो किराएदार इसमें रहते थे, यहां के हालात के अनुसार वो बहुत अभ्यस्त हो गये थे. जब तक वो रहे, न हमें परेशानी हुई, और न कभी उन्हें. वैसे भी लैट्रीन आदत और अभ्यास का मसला है. आप जिस समय जाने की आदत डालियेगा, उसी समय आएगी. कोई दिन में तीन बार जाता है, कोई चौबिस घंटे में केवल एक बार. आदत पर निर्भर करता है.”

“ मान लिजिये, मैं आदत डाल लूंगा, कभी मेरे परिवार आएंगे तो? मुश्किल तो होनी ही है.”

“तय कर लिजिये आराम से. कल सूचित कर दिजिएगा. और भी कई लोग देख कर गये हैं.”

अहा, यहां भी लाईन लंबी है. नर्क में भी धक्कमपेल. खैर, अब काला गैंडा सामान फेकना चाहेगा तो कहूंगा, इतनी जोर से फेके कि यहां आकर गिरे, कमरा लगभग मिल ही गया है. अपने लैट्रीन को मैं संभाल लूंगा. लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था, इस अपाहिज कमरे को पाकर मैं खुश होऊं या और ज्यादा निराश.

रात भर अपनी लैट्रीन से जुडी समस्याओं, अच्छाईयों-बुराईयों पर मंथन करता रहा, फिर सुबह जाकर कमरे के लिये मना कर दिया. मना करते वक्त मन को बहुत संतोष हो रहा था कि निर्णय लेने का मौका कभी मेरे हिस्से भी आया.



मेहेर प्रसाद (आदमी नहीं, आवास का नाम)

“आ सकते हैं, आप जूते पहनकर आ सकते हैं, जूता बाहर छोडने पर रिच उसे नोचने लगता है. अभी वह सो रहा है. इसलिये आप पर भौंका भी नहीं.” तब तक मैं अपना बिना फिते वाला जूता उतारकर अंदर आ चुका था. वे वापस मुडे, मेरा जूता उठाया और उसे अंदर रखकर दरवाजा सटा दिया. सामने सोफे की ओर मुझे बैठने का इशारा कर उन्होंने अपनी पत्नी को पानी लाने के लिए आवाज़ दे दी.

मैं आभार से दबा जा रहा था. उन्होंने मेरा जूता उठाया था, वो भी अपने हाथ से. मैं कह नहीं सकता कि मेरे भीतर इस बात से कितनी उथल-पुथल मच गयी थी. मैं तुरंत अनुगृहीत हो जाने वाला आदमी हूं. हर समय, हर किसी से अनुगृहीत होता रहता हूं. आप मुझे ‘आप’ बोल देंगे, थोडा सम्मान बरत देंगे, मैं परेशान हो जाऊंगा. वाचमैन, बेयरा अभिवादन कर देगा, सर बुलाएगा, मैं असहज होकर अनुगृहीत हो जाऊंगा. फिर तो ये चीजें मुझे इतनी मथने लगती हैं कि मैं बेचैन हो सोचने लगता हूं कि मैं अदना इन लोगों के लिये क्या कर सकता हूं.

यहां वकील साहब ने अपने हाथ से मेरा जूता उठाकर मुझे सचमुच बहुत असहज कर दिया था. एक तरह से मैं मोहा सा गया था. कितने सरल और सहज आदमी हैं. मैं भीतर से पुलक रहा था. एक बार कमरा मिल जाए, इनसे तो मेरी गजब पटेगी.

“ आपको किनसे पता चला कमरे के बारे में?” ओह, कितना मिठा बोलते हैं. उनके तवज्जह से मैं गले से आंखों तक भावुक हो आने को हो रहा था. “मोड पर जो प्याऊ है, वहीं एक आदमी ने बताया कि बायीं ओर तीसरी गली का पहला मकान वकील साहब का है, एक बार वहां पूछ लूं.” “नरेश होगा, वो हमेशा वहीं रहता है. उसी ने कमरे में सफेदी की है. आप कमरा देख लिजिए. इसके पहले इसमें मेरे मित्र का लडका रहता था. अचानक उसको एक्वेरियम की दूकान का भूत सवार हुआ और पढाई छोडकर घर चला गया कि दिल्ली में एक बडा शाप खोलूंगा. पढने में बहुत तेज था. डेढ साल यहां रहा. उसके जाने के बाद हमने कमरे को दुरूस्त करने के लिये नरेश को लगा दिया. अब चकाचक है. हवा, पानी, बिजली, शौचालय सब एवन. आपको कोई परेशानी नहीं होगी.”

सुनकर लगा, दिल का सारा दर्द बिलख कर बाहर आ जाएगा. पिछले छ: दिन से बहुत ज्यादा परेशान हूं सर. कमरा खोजते-खोजते बेदम हो गया हूं. आपसे मिलकर, कमरा देखकर अब थोडा इत्मीनान लग रहा है.

“यहां रहना चाहूं तो कब से रह सकता हूं सर? अच्छा, और किराया कितना रखा है सर?”

“पैसे का क्या है, दिल मिलना चाहिए. ये सबसे जरूरी चीज है. और कब से आने की क्या बात है, आप अपनी सुविधा से जब आना चाहें. आज तो आज, कल तो कल. मुझे कोई दिक्कत नहीं है. वैसे सोलह सौ रुपया किराया हमने तय किया है. बिजली-पानी सब इसी में है.”

बहुत ज्यादा था. लेकिन ऐसा आदमी कहां मिलता है, वो भी मकान मालिक. इतना तो घूम कर देख लिया. उसने मेरा जूता उठाया. सही बात है कि दिल मिलना महत्वपूर्ण है. वैसे दो-तीन सौ कम हो जाता तो मुझे बहुत सहुलियत हो जाती. मगर उनसे ये कहना ठीक नहीं है. कहीं बहुत हल्का आदमी समझ लिया तो?

“हां सर, आदमी के व्यवहार-विचार से बढकर कुछ नहीं है. आदमी जब एक छत के नीचे रहने लगता है तो बाहरी कहां रह जाता है. फिर तो सुख-दु:ख सब में अपने आप हिस्सेदारी बन जाती है. पहले जहां मैं था, जब मकान मालकिन को लडकी हुई तो देखने-भालने वाला कोई नहीं था. जब तक बच्ची की नानी और उनके पति आते, बच्ची का पेशाब-पैखाना सब मैंने ही किया.”

वकील साहब की पत्नी पीछे कुर्सी पर बैठ मुझे बहुत गौर से देख रही थी. मेरी बात सुनकर बहुत महीन मुस्कुरायी. “आप मांस-मछली तो नहीं खाते हैं न?” उन्होंने पहली बार हस्तक्षेप किया.

ये कहां फंसा दी, शराब वाली बात की तरह. और मैंने झट से झूठ मार दिया, “नहीं.” जबकि मैं यहां कह सकता था कि खाता तो हूं, पर आपलोगों को यदि इस पर ऐतराज है, तो कमरे में नहीं बनाऊंगा. खाना होगा तो होटल में खा लूंगा. लेकिन रिस्क लेने की क्या जरूरत थी. एक बार कमरा मिल जाए, फिर बाद का बाद में देखा जाएगा. मुझे अपनी हाजिरजवाबी पर खुशी हो रही थी. रानी कुटी वाली गलती मैंने यहां नहीं दोहरायी थी.

इस दौरान वकील साहब कुछ सोचते हुए लग रहे थे. बोले, “ कौन आदमी कैसा है, ये तुरंत नहीं पता चलता. समय लगता है. आज से करीब सात साल पहले की एकदम सच्ची घटना सुना रहा हूं. ज्यादा दूर की नहीं, इसी लाईन में मेरे घर के बाद एक घर छोडकर जो दूसरा घर है वहीं की है. उसमें लक्शनु चार साल किराएदार रहा. अपनी पूरी जिंदगी में उसके जैसा ऐक्टिव आदमी मैंने कभी नहीं देखा. वह किराएदार तो सोनी जी का था, पर मोहल्ले का हर घर उसका ठिया जैसे था. सुबह-शाम बच्चों को पढने के लिये जमा करना, उनके साथ घूमना-खेलना उसका सबसे प्यारा काम था. उस समय उसी की वजह से पूरे मोहल्ले के एक भी बच्चे को पैसा देकर बाहर ट्यूशन नहीं लगवाना पडा था. बच्चे तो बच्चे, लक्शनु बुजुर्गों के लिये भी समय काटने का सबसे बढिया जरिया था. उनके लिये वह दिल्ली, पटना से तरह-तरह की किताबें लाता. खाली-पीली बैठे सभी रिटायर्ड बुढे दिन-रात कुछ न कुछ पढते रहते थे. उनके जिम्मे का बहुत सारा काम लक्शनु करता था. बिजली का बिल, फोन का बिल, डाकखाने का काम, बाज़ार का काम ऐसे कई कामों के लिये वह हमेशा हाजिर रहता था. किसी का गेहूं पिसवाकर लाना हुआ, किचेन में सब्जी जल रही है, सांप निकल आया है, किसी को जल्दी अस्पताल लेकर जाना है, घर में कोई नहीं है, कोई बात नहीं, लक्शनु तो है ही. अद्भूत ऊर्जा थी उसके पास. उसने एम.ए. तक की पढाई की थी. मेरे साथ वो कोर्ट-कचहरी, राजनीति सब बतियाता था. तीस-बतीस साल का होगा, लेकिन हमेशा उसके भीतर एक बच्चा बैठा रहता था. मोहल्ले में कभी किसी ने उसे परेशान नहीं देखा. मोहल्ले के घरों को छोडिए, लगभग सभी घरों के नाते-रिश्तेदारों को वह बढिया से पहचानता था. वे लोग भी उसको जानते थे, उसकी तारीफ करते थे. पर एक दिन सबको झटका लग गया. मोहल्ले में तीन गाडियां पुलिस आयी थी. उस समय लक्शनु सोनी जी के साथ पौधे लगा रहा था. पुलिस पूरे घर को घेर ली. और वैसे ही, मिट्टी सने हाथ ही उसको पकडकर ले गयी. उसका कमरा सील कर दिया गया. मालुम वो कौन था, आंध्रप्रदेश का एक बहुत बडा नक्सलवादी था. विश्वास नहीं कीजिएगा, जब उसे गाडी में बिठाया जा रहा था, पूरे मोहल्ले वाले रो रहे थे. अरे मेरी मिसेज भी रो रही थी. अब बताईये, लक्शनु को देखकर कोई कह सकता था कि वो ऐसे काम भी करता होगा.”

“ समझ रहा हूं सर. ” मैंने गंभीरता से सहमती जतायी.

“मुझे कभी-कभी अजीब लगता था, जब वो सुबह से ही रोटियां बनाने में लग जाता. पचास-साठ रोटियां बनाता. एक बार मैंने पूछा भी था कि इतनी रोटियों का क्या करते हो लक्शनु, तो उसने हंसकर कहा था, घर से बहुत सारे लोग अस्पताल आये हुए हैं, उन्हीं के लिये ले जाना पडता है. अब समझ में आता है, वो रोटियां कहां ले जाता होगा. अभी वो हैदराबाद की जेल में है. मोहल्ले की ही एक लडकी हैदराबाद देना बैंक में है. वह हर साल उसको एक बार राखी बांधने जरुर जाती है. प्रेम वाली बात है. अगर वो नक्सलवादी नहीं होता, तो ऐसा हीरा आदमी होता कि क्या बताऊं.”

“ये लोग ऐसे ही होते हैं सर. मैं जानता हूं न!”

“एक बार मैं बाहरगांव गया हुआ था. मिसेज अकेली थी. मेरे ससुराल से खबर आयी कि मेरे बडे साले की तबीयत बहुत गंभीर हो गयी है. मिसेज हडबडा गयी. जाने के लिये रोने लगी. पर अकेली कैसे क्या करती? तब पता है, लक्शनु ने मेरी मिसेज को मायके पहुंचाया था. और चौबिस घंटे में जब सब कुछ नियंत्रण में आ गया था, वह मिसेज को वापस भी ले आया था.”

“बहुत नेकी होती है इनके भीतर. बहुत मिलनसार होते हैं ये. मैंने तो करीब से देखा है न सर.”

“उसके रहते मोहल्ले में दो शादियां हुई. शादी में वो बिल्कुल मजदूर बन जाता था. बाकी लोग नए कपडों में घूम रहे हैं, और वो अपने रोज के कपडों मे ही मजदूरों के साथ मगन है. न खाने की धुन, न सोने की.”

“मेरा खूब जाना-समझा हुआ है ये सब सर. जितने आत्मीय और मददगार ये लोग होते हैं, शायद ही दूसरे क्षेत्र के लोग हों. अब बात चली है तो आपको बता रहा हूं, मेरा घर ऐसी जगह पर है, जहां अस्सी प्रतिशत लोग इसी क्षेत्र में हैं. दुनिया उनके बारे में जो भी कहती-समझती रहे, उनका विचार-व्यवहार तो हमलोग ही जानते हैं. उनके मधुर और सह्र्दयी स्वभाव के बारे में क्या कहूं, जिनके बारे में आप बता रहे हैं, बस हू-ब-हू वैसे ही समझ लिजिए. कभी ले चलूंगा, आपको अपने घर तरफ.”

“कहां घर हुआ आपका?”

“रायगढ के पास.”

“सोनी जी ठीक कहते हैं, किसी के माथे पर कहां लिखा होता है कि कौन आदमी कैसा है. उस घटना के बाद उन्होंने अपने घर के बाहर एक बोर्ड टांग दिया, किराए के कमरे के लिये पूछ्ताछ न करें.”

“जब उसे पकडकर ले जा रहे थे, कोई बोलने नहीं आया सर? मोहल्ले वालों को सामने आना चाहिए था.”

इसके बाद वकील साहब ने कुछ नहीं कहा. कहानी के बाद माहौल बहुत गंभीर हो आया था. सब खामोश थे. मैं कुछ देर यूं ही बैठा रहा, सामने रखी ग्लास का पानी पीया. फिर उठते हुए बोला,“सर मैं शाम को आता हूं. कमरे को थोडा झाड-पोछ लूंगा.”

“शाम में मैं नहीं रहूंगा. अपना नंबर दे दिजिए, मैं आपसे बात कर लूंगा.”

““जी.”

उस रोज शाम में अपने कमरे में घुसते वक्त झूला झूलते काले गैडें को मैंने बडे आत्मविश्वास से देखा. उससे इत्मीनान से नजरें मिलायी और चिढाने के अंदाज में मस्ती में गुनगुना दिया. रात को बडी सुकुन के साथ गहरी नींद आयी. सपने में एक दयालु सज्जन दिखे. वे कोई और नहीं, वकील साहब थे. सुबह मन और शरीर बहुत हल्का लग रहा था. मैं नए कमरे पर जाने की तैयारियों में लग गया. आठ बजे के करीब नए नंबर के साथ मोबाईल बजा. वकील साहब थे.

“कल आपसे कमरे को लेकर बात हुई थी. उसमें नया डेवलपमेंट यह है कि वो लडका, जो इसमें पहले रहता था, मेरे मित्र का बेटा, वह वापस रहने के लिये आ रहा है. घरवालों ने उसको एक्वेरियम के बिजनेस के लिए पैसा देने से मना कर दिया है, इसलिये वह फिर से पढाई शुरू करना चाह रहा है. गांव-घर की बात है, सबको लेकर चलना पडता है. अब हम कमरा देने की स्थिति में नहीं हैं.”

टूं-टूं-टूं-टूं- फोन कट गया. शायद वकील साहब झूठ बोल रहे थे. पर क्यों? ऐसा क्या हो गया रात भर में? कि सही में वो लडका रहने के लिये आ रहा था. भाड में जाएं सब.

वकील के नकार के बाद मेरा मन इस शहर और यहां के गलीज मकान मालिकों के लिये खट्टा हो गया था. मैं इतना गहरे टूटा था कि कोई उसकी इन्तहां नहीं है. मुझे छोटे शहरों के वे दिन याद आने लगे, जब मैं और नेसार, मेरा अज़ीज, दिन भर इसी तरह घूम-घूम कर कमरे की तलाश करते थे. पर लंबी मशक्कतों के बाद भी हमें कोई कमरा नसीब नहीं होता था. मकान वाले नाम पूछते, साथ में रहने की बात पूछते और फिर बेहयाई से इंकार कर देते. तब अंत में हारकर हमें अकेले-अकेले, अलग-अलग मोहल्ले में रहना पडा था. पर यहां, इस बडे शहर में तो ऐसा नहीं था, फिर क्या हो गया था?

आवेश में मैं मिज़ाज़ से खूनी हो आने को हो रहा था.



मियाद खतम, भागो, जान बचाओ

वायदे और चेतावनी वाला दसवां दिन.

दस दिन कैसे गुजरा, दो ही लोग जानते हैं. एक मैं और एक मेरा जूता. जूता मर जाएगा, पर उफ्फ नहीं करेगा. पर मैं बोलूंगा. दर्ज करूंगा, शहर बहुत बेदर्द और बदतमीज निकला. अच्छा हुआ, कम तबाही हुई. सस्ते में छूटा. वरना जितना घर के लिये बौखना पडा, आगे रोजगार के लिये भी भटकना पडता. पैसे देने पर भी जो रहने के लिये ठौर नहीं दे सकता, वह खाने के लिये रोटी क्या देगा. जिस शहर का मिज़ाज़ आसमान छू रहा हो, वह स्वागतगान क्यों गायेगा. ऊपर के चार घर, जिन्हें मैंने अलग-अलग समयों में अपने रिहाइश के रूप में देखा, ये मुझे बहुत दर्द दिये. वह भी बिना मेरी खता-कसूर के. बडाई तो उनकी है, जिन्होंने एक लाईन में कहा, कमरा नहीं देना है. न झूठ बोले, न बहाने किए.

इस मामले में काले गैंडे ने मेरे साथ भारी फरेब किया. मुझे गली का कुत्ता बना दिया. वह दो दिन और इंतजार करेगा. और फिर कहा नहीं जा सकता, मेरे साथ किस तरह से पेश आयेगा. पुलिस के दिमाग का कोई ठिकाना नहीं है, कब क्या कर दे. अगर डिल-डौल में मैं भी गैंडे सरीखा होता, तो काले गैंडे की आज खैर नहीं थी. मैं उसे मल्ल युद्ध में पटककर उसकी थूथन बबूल के कांटों से रगड देता.

दसवें दिन की सुबह जागने के बाद मैंने चाय पी और किवाड की उन झिर्रियों को मुंदने में लग गया, जिससे काला गैंडा किरायेदार की निजी जिंदगी में दाखिल होता था. हालांकि मैं यह करता हुआ लगातार सोच रहा था कि वह गैंडा इन छेदों को फिर से बहाल कर लेगा.

इस काले गैंडे से बदला निकालने का क्या तरीका हो सकता है. कमरे में पैखाना करता जाऊं? उल्टियां कर दूं? अपनी सारी फटी चड्डियां यहीं बिखेर जाऊं? कमरे की दीवारों पर काला गैंडा होश में आओ और साथ ही कई गालियां लिख दूं? भूले-भटके आने वाले किराएदारों को खतरे से आगाह करने के लिये एक-दो गुप्त जगहें चुनकर वहां संदेश छोड जाऊं, ‘ प्रेम करें आप, मजे ले किवाड के पार का गैंडा’.

पर बदले के मैं किसी भी तरीके पर अमल नहीं कर पाया. फितरत नहीं है यह सब अपनी.

हां यह जरूर है कि आलस में मैंने आते वक्त बाथरूम में खडे-खडे पेशाब किया और पानी भी नहीं गिराया. काले गैंडे की नाक की क्षमताएं यदि बढी हुई हों तो वह इसे मेरी भारी बदमाशी कहेगा और झूले पर झूलता हुआ गीत की तरह गालियां गाएगा.

हालांकि तब तक मैं यह शहर छोड चुका होऊंगा और उसकी गालियां जाया होती रहेंगी.

मुझे भारती निवास की वह मासूम लडकी फिर से याद आ रही है. उसने मुझे गजब की इज़्ज़त बख्शी थी. दिल नहीं मानता कि वह इस दिलहीन शहर की हो सकती है.



published in parikatha 2010 (november-december issue)